औरंगाबाद :गरीबी नहीं जाने देती स्कूल ,किताबों की जगह कबाड़ बीनने के लिए मजबूर नन्हें हाथ

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मगध एक्सप्रेस : जिस उम्र में बस्ते का बोझ उठाना चाहिए, उस उम्र में बच्चे कबाड़ ढो रहे हैं। औरंगाबाद जिले के देव प्रखंड के व्यवस्तम सड़कों के किनारे कंधे पर स्कूली बैग की जगह कबाड़ का भार उठाते बच्चे दिख जाना आम बात हैं। यह बच्चे कभी स्कूल नहीं गए। दूसरे बच्चों को स्कूल जाते देख इन बच्चों का स्कूल जाने का मन तो करता है, लेकिन गरीबी इनको स्कूल जाने नहीं देती। यह मासूम बच्चे रोज सुबह से रात तक कबाड़ा बीनकर उसे बेंचते है और 2 वक्त की रोटी का इंतजाम करते है। शहर में ऐसे सैकड़ों मासूम बच्चे हैं, जो अपने परिवार गरीबी और मजबूरी के चलते दो वक्त की रोटी कमाने के कूड़े के ढेर पर नजर आते हैं। कचरे की ढ़ेर में जिन्दगी तलाशने वाले अधिकाश बच्चे या तो स्कूल छोड़ देने वाले होते हैं या फिर अपने ही माता-पिता द्वारा जबरन कचरा बीनने में लगा दिए जाते हैं। नन्हीं सी उम्र में ही उनके द्वारा कमाई गई छोटी रकम भी उन्हें बेहद बड़ी लगती है। वे छोटी उम्र में ही बड़े सपने देखते हुए मानसिक रूप से बड़े हो जाते हैं और जल्द ही कई बुरी आदतों के शिकार हो जाते हैं।

एक तरफ विद्यालयों में बाल दिवस के अवसर पर खुशियां मनाई जा रही है। तो दूसरी तरफ दर्जनों बच्चे कचरों के ढ़ेर के बीच अपनी जिदंगी तलाश रहे हैं। उन्हें न ही इस बाल दिवस से कोई मतलब है और न ही भविष्य की चिंता। चिंता है तो बस इस बात की कि उनका बोरा कबाड़ से कब भर जाए। ताकि जब वह शाम को अपने घर पहुंचे तो उनके माता-पिता इस छोटी सी कमाई से खुश होकर उसे दुलारे। ऐसे बच्चों को ही ध्यान में रखते हुए सरकार ने प्रारंभिक शिक्षा को मौलिक शिक्षा का दर्जा दिया। इसे मिशन तक पहुंचाने के लिए सरकार प्रतिवर्ष अरबों रूपया खर्च करती है। यहां तक कि विद्यालयों में कार्यरत शिक्षकों के पोषक क्षेत्र तक निर्धारित कर दिये गये। ताकि वे अपने जिम्मेवारी को समझ कर अपने क्षेत्र के बच्चे को विद्यालय से जोड़ सकें। बावजूद आज भी कई ऐसे बच्चे हैं जो या तो माता-पिता के दवाब में या फिर अपने मनमर्जी के कारण कचरे की ढ़ेर पर ही अपने भविष्य को निहारते हैं।


अक्सर बच्चे कचरा बीनने वाले नालियों और नालों में कीमती कचरे को ढूंढ़ते फिरते हैं पर आपने इन्हें नालों और गटर में कुछ ढूंढ़ते हुए बहुत कम देखा होगा। कचरे को इकठ्ठा करना, फेंकना और उसे नष्ट करना एक सामान्य दैनिक कार्य है। कचरे के इस ढ़ेर पर बच्चों की सेना बड़ी खुशी से खेलती हुई नजर आती रहती है। हालाकि यह चित्र स्थानीय स्तर पर शहर में बड़े ही आसानी से देखी जा सकती है।ये बच्चे अक्सर नंगे पैर, नंगे चेहरे व हाथ के साथ ही अत्यंत घातक और बीमारियों से युक्त कचरे के ढे़र में दिन भर भटकते रहते हैं। इनमें से अधिकाश बच्चे स्कूल छोड़ देने वाले होते हैं। वे नाजुक उम्र में ही बीड़ी, सिगरेट व गुटखे आदि का सेवन करने लगते हैं। छोटी उम्र में देखे गए बड़े-बड़े सपने जब पूरे नहीं होते तो ये जाने-अनजाने स्थानीय गुंडों के चंगुल में फंसकर अपना जीवन बर्बाद कर लेते हैं। आगे चलकर यही बच्चे समाजद्रोही और अपराधी बन जाते हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जिन बच्चों के लिए समय-समय पर अनिवार्य शिक्षा के कानून बनते हैं, अरबों रुपये की योजनाएं बनती हैं तथा ढेरों वादे किए जाते हैं। वही बच्चे बेहद विपरीत परिस्थितियों में कचरा बीनने और अन्य क्षेत्रों में मजदूरी करने के लिए विवश होते हैं। इतनी मेहनत करके भी उन्हें उनके हक का हिस्सा नहीं मिलता है।

ऐसे बच्चों के अभिभावकों की माली हालत काफी दयनीय होती है। उनके जीवन में पढ़ाई का कोई महत्व नहीं होता है। कम उम्र में ही उनके लाडले कमाई शुरू कर दे। उनसे ज्यादे वह खुश होते हैं। उसे तो बस चिंता रहती है कि कुछ हम भी कमा लें और कुछ बच्चे भी कमा ले ताकि घर की चक्की किसी तरह चल जाए।कबाड़ चुन्ने वाले बच्चो ने बताया कि हम लोगों के पास छत नहीं है, रोड पर कई तरीके के लोग निकलते हैं। हम लोग स्कूल नहीं जाते हैं। हम लोग दिनभर कबाड़ बेचने के बाद सौ दो रुपये के बीच ही कमा पाते है। जिससे खाना ही हो पाता है।

सामुदायिक प्रयासों से ढूंढना होगा हल

हालांकि ऐसी समस्याओं को हल करने के लिए सामुदायिक भागीदारी के साथ साथ लोगों में जागरूकता पैदा करना बहुत ही महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। इसके अतिरिक्त स्वयं इन बच्चों के परिवारों की आर्थिक स्थिति में सुधार के उपायों के साथ-साथ उनमें भी जागरूकता आवश्यक है। केवल बच्चों को बचाना और उन्हें उनके घरों तक पहुंचाना ही समस्या का स्थाई समाधान नहीं है, क्योंकि माता-पिता अपने बच्चों को अतिरिक्त आय अर्जित करने के लिए वापस वहीं भेज सकते हैं या उन्हें बाल श्रम के रूप में बाजार में धकेल दिया जा सकता है। इन लोग बेहद कमज़ोर आर्थिक स्थिति वाले परिवार से आते हैं।

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